Nishikant Dubey Statement On SC: यह कानून उन बयानों को दंडनीय बनाता है जो न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं, उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाते हैं या उसकी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं.
Nishikant Dubey Statement On SC: सुप्रीम कोर्ट वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर समीक्षा कर रहा है. इसपर देश में कई नेताओं के द्वारा बयानबाजी भी की जा रही है. इस बीच भाजपा नेता निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए न्यायपालिका पर जिस तरह की टिप्पणी की थी उसके बाद बवाल छिड़ा हुआ है. ये टिप्पणी विवाद का विषय बन गई है. निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट पर अपनी सीमाओं से बाहर जाकर फैसले करने का आरोप लगाया है. दुबे ने कहा कि कोर्ट संसद को दरकिनार करने का काम कर रहा है.
निशिकांत दुबे ने क्या कहा था
निशिकांत दुबे ने कहा थी कि देश में धार्मिक दंगों को भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है. अगर सभी मामलों में आखिरी फैसला सुप्रीम कोर्ट को ही करना है तो संसद और विधानसभा को बंद ही कर देना चाहिए. इसके अलावा निशिकांद दुबे ने ये और भी तमाम बातें कहीं. आइए अब आपको बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ऐसे बयान देने पर क्या परिणाम हो सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बोलने पर क्या हो सकती है सजा ?
भारत में न्यायपालिका को लोकतंत्र का अभिन्न अंग माना जात है. सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ आपत्तिजनक या अपमानजनक बयान देना Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 2(c)(i) के तहत अवमानना माना जा सकता है. यह कानून उन बयानों को दंडनीय बनाता है जो न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं, उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाते हैं या उसकी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं. सजा में छह महीने तक की कैद, दो हजार रुपये तक का जुर्माना, या दोनों शामिल हो सकते हैं. गंभीर मामलों में, कोर्ट माफी मांगने का निर्देश दे सकता है, और मना करने पर सजा बढ़ सकती है. हालांकि, कोर्ट आमतौर पर सजा देने से पहले संदर्भ और बयान के इरादे को देखता है.
क्या है बयानबाजी की सीमा
संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन यह असीमित नहीं है. बयानबाजी तब तक स्वीकार्य है, जब तक वह सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता, स्वतंत्रता या प्रक्रिया को कमजोर न करे. उदाहरण के लिए, रचनात्मक आलोचना, जैसे न्यायिक सुधारों पर चर्चा, स्वीकार्य हो सकती है, लेकिन व्यक्तिगत हमले, कोर्ट को “अराजकता फैलाने” वाला कहना, या उसकी प्रक्रिया को “कानून बनाने” जैसा बताना अवमानना की श्रेणी में आ सकता है. सीमा अस्पष्ट है और केस-दर-केस निर्धारित होती है, लेकिन सार्वजनिक हित और बयान का प्रभाव महत्वपूर्ण कारक है.
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