3 April, 2024
Hazrat Nizamuddin Death Anniversary: हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती दरगाह का जादू ही ऐसा ही है कि कुछ मीटर की दूरी से ही श्रद्धालुओं को अगरबत्ती और इत्र की खुशबू अपनी ओर खींचने लगती हैं. परिसर में प्रवेश से पहले ही गली में गुलाब की खूबसूरत पंखुड़ियों के साथ चादरें और अगरबत्तियां बेचने वाले दुकानदार इस बात का एहसास करा ही देते हैं कि आप हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती दरगाह से चंद सेकेंड दूर हैं. यहां आने वाले इत्र, लोहबान और मोतियों की माला (तस्बीह) प्रसाद (नियाज़) के रूप में घर ले कर जाते हैं. 3 अप्रैल को हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती (औलिया) (Auliya) की बरसी होती है. इस स्टोरी में हम बता रहे हैं उनकी बरसी पर खास बातें.
उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में 1238 ई. में जन्मे हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती (औलिया) (Auliya) को भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्रसिद्ध सूफ़ी संत कहा जाता है. हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती और महबूब-ए-इलाही (खुदा/ भगवान के प्रिय) के रूप में भी जाना जाता है. इसके अलावा, चिश्ती सूफी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का कहना था कि प्रेम में इंसानियत निहित है. वह एक सुन्नी मुस्लिम विद्वान और चिश्ती आदेश के सूफी संत थे. हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती (औलिया) 5 साल की उम्र में अपने पिता अहमद बदैनी (मृत्यु) को खोने के बाद अपनी मां बीबी जुलेखा के साथ दिल्ली चले आए थे.
Nizamuddin Death Anniversary: दुनिया भर के मुसलमानों पर बड़ा प्रभाव
हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती (औलिया) (Auliya) की जीवनी उल्लेख आइन-ए-अकबरी में बताया गया है कि मुगल सम्राट अकबर के एक नवरत्न मंत्री द्वारा 16वीं शताब्ती में प्रमाणित है. यह पाकिस्तान में मौजूद है. वह सूफी संत फरीदुद्दीन गंज-ए-शक्कर शिष्य बन गए थे, इन्हें बाबा फरीद के नाम से भी जाना जाता है. हर साल रम़जान के पाक महीने में बाबा फरीद की उपस्थिति में अजोधन जाया करते थे. वह हर साल रमजान के पाक महीने में बाबा फरीद के साथ अजोधन में समय बिताते थे. बाबा फरीद ने हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती को अपना उत्तराधिकारी बनाया, लेकिन यात्रा के बाद हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती को खबर मिली कि बाबा फरीद की मृत्यु हो गई है, जिससे वह दुखी हो गए.
Nizamuddin Death Anniversary: 92 वर्ष की आयु में प्राण त्यागे
हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती ने कहीं भी अपना ठिकाना नहीं बनाया, बल्कि अपनी आध्यामिक शिक्षा को जारी रखा. इसके अलावा, दिल्ली में उन्होंने सूफी अभ्यास को भी जारी रखा. उन्होंने अपना ‘ख़ानक़ाह’ बनाया, जहां कई अलग समुदायों के लोगों को खिलाया जाता था. ‘ख़ानक़ाह’ एक ऐसी जगह बन गई, जहां पर कोई भी जा सकता है बिना किसी भेद भाव के. उनके कई शिष्यों ने आध्यात्मिक ऊंचाइयों को हासिल किया. दिल्ली सल्तनत के एक काफी प्रसिद्ध विद्वान/ संगीतकार और शाही कवि के रूप में भी जाने जाते हैं. 3 अप्रैल 1325 को उनकी मृत्यु हो गई और हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह दिल्ली में स्थित है. दक्षिणी दिल्ली में स्थित हजरत निज़ामुद्दीन औलिया का मकबरा सूफी काल की एक पवित्र दरगाह है और इस दरगाह में दिवाली, होली और बसंत पंचमी समेत कई त्योंहार सभी लोग साथ मिलकर मनाते हैं. यहां आकर गंगा जमुनी तहजीब का एहसास होता है.
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