22 February, 2025
Introduction
Table of Content
- विश्वासघात की बली चढ़े संभाजी
- बुरहानपुर में शानदार जीत
- अपनों ने ही दिया धोखा
- संभाजी के खिलाफ साजिश की शुरुआत
- पत्नी के भाईयों ने दिया धोखा
- मुगलों ने दिया लालच
- गनोजी ने मुगलों तक पहुंचाई खबर
- औरंगजेब ने बनाया बंदी
- संभाजी के बाद शिर्के का क्या हुआ?
Chhatrapati Sambhaji Maharaj History: वीर मराठा संभाजी महाराज की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘छावा’ बॉक्स ऑफिस पर गदर मचा रही है. विक्की कौशल इस फिल्म में संभाजी महाराज का किरदार निभाकर लोगों के दिलों में उतर चुके हैं. फिल्म का क्लाईमैक्स इतना जबरदस्त है कि लोग इसे देखकर इमोशनल हो रहे हैं. ज्यादातर लोग को फिल्म देखते हुए अपने आंसुओं पर काबू नहीं कर पा रहे हैं. वैसे अब तक कई बॉलीवुड फिल्मों में छत्रपति शिवाजी महाराज का किरदार दिखाया जा चुका है. ये पहली बार है जब संभाजी महाराज की जिंदगी को बड़े पर्दे पर उतारा गया है. पहली बार लोग मराठा साम्राज्य के वीर योद्धा संभाजी महाराज की कहानी के बारे में जान रहे हैं. यही वजह है कि लोग उनसे जुड़ी हर बात जानना चाहते हैं. ऐसे में आज हम उन दो विश्वासघातियों के बारे में जानेंगे जिन्होंने औरंगजेब के साथ मिलकर संभाजी महाराज की पीठ में छुरा घोंपा. उनका नाम है कान्होजी और गनोजी शिर्के. यहां ये कह सकते हैं कि जब ऐसे दोस्त और रिश्तेदार हों तो दुश्मनों की जरूरत ही क्या है?

विश्वासघात की बली चढ़े संभाजी
मराठा सम्राठ छत्रपति शिवाजी महाराज की ही तरह संभाजी राजे भी मुगलों से डरे नहीं बल्कि उनका डटकर मुकाबला किया. अपनी आखिरी सांस तक संभाजी मुगलों के सामने झुके नहीं बल्कि एक असली शेर के बच्चे यानी ‘छावा’ की तरह उसके सामने डटे रहे. 3 अप्रैल, 1680 को शिवाजी महाराज के बाद उनके परिवार में सत्ता के लिए लड़ाई शुरू हो गई, क्योंकिन निधन से पहले शिवाजी ने न तो कोई वसीयत बनाई और ना ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था. पारिवार के षडयंत्रों का सामना करते हुए संभाजी महाराज को 20 जुलाई, 1680 को छत्रपति की गद्दी दी गई. इसके बाद संभाजी ने कई बार मुगलों को उनकी नानी याद दिलाई. हालांकि, कान्होजी और गनोजी शिर्के जैसे दो रिश्तेदारों ने संभाजी के साथ ऐसा धोखा किया कि वो औरंगजेब के हाथ लग गए. इसके बाद औरंगजेब ने अपनी सालों की भड़ास निकाली.
बुरहानपुर में शानदार जीत
साल 1682 मुगल सेना दक्खन यानी दक्षिण पर लगातार कब्जा करने की कोशिश कर रही थी. उस वक्त औरंगजेब मुगल बादशाह था. उसने मराठाओं के राज्यों को अपने कब्जे में करने के लिए उन्हें घेरने की तैयारी तेज कर दी. हालांकि, तब छत्रपति संभाजी महाराज भी मुगलों की ईंट से ईंट बजाने के लिए लगातार अपनी तैयारियां कर रहे थे. उन्होंने कई बार गुरिल्ला तकनीक के जरिए औरंगजेब की सेना को धूल चटाई और वो भी तब, जब औरंगजेब की सेना संभाजी महाराज की सेना से कहीं ज्यादा थी. उसी दौरान मराठाओं ने बुरहानपुर पर हमला करके उसे पूरी तरह से तहस नहस कर किया. इस वजह से मुगलों को काफी नुकसान हुआ, क्योंकि बुरहानपुर से उनका काफी व्यापार होता था. संभाजी महाराज और उनकी सेना इतनी मजबूत थी कि औरंगजेब उन्हें लेकर गुस्से से भर चुका था और किसी भी कीमत पर उन्हें हराना चाहता था. हालांकि, मराठाओं के लगातार हमलों की वजह से साल 1685 तक मुगल उनके साम्राज्य का कोई भी हिस्सा अपने कब्जे में नहीं कर पाए.
अपनों ने ही दिया धोखा
संभाजी महाराज के रहते हुए मुगलों ने कई बार मराठा साम्राज्य पर कब्जा करने की जोरदार कोशिश की. इस बीच गोलकुंडा और बीजापुर में उन्हें सफलता भी मिली, लेकिन बाकी हिस्सों पर मुगल अपनी हुकूमत का सपना लेकर ही रह गए. मुगल लगातार मराठा साम्राज्य पर हमला कर रहे थे लेकिन सन 1687 में मराठाओं ने उन्हें ऐसा करारा जवाब दिया कि ना चाहते हुए भी मुगलों को पीछे हटना पड़ा. हालांकि, इस लड़ाई में भले ही संभाजी महाराज की जीत हुई लेकिन उनके भरोसेमंद सेनापति हंबीरराव मोहिते शहीद हो गए. अब सेनापति की जगह खाली थी तो मौका पाकर मराठा साम्राज्य में संभाजी महाराज के कुछ रिश्तेदारों ने उनके खिलाफ साजिशें शुरू कर दीं. वो लोग संभाजी की जासूसी करने लगे और उनकी खबरों मुगलों तक पहुंचाने लगे.

संभाजी के खिलाफ साजिश की शुरुआत
एक वक्त आया जब संभाजी महाराज पुर्तगालियों, मुगलों और निजाम तीनों से लड़ाई कर रहे थे. उनकी रणनीति इतनी मजबूत थी कि संभाजी को जीत भी मिली. जीत के बाद उन्होंने संगमेश्वर में एक बैठक करने का एलान किया. संभाजी महाराज 31 जनवरी, 1689 को रायगढ़ के लिए रवाना होने वाले थे. इसी बीच उनके रिश्तेदार कान्होजी शिर्के और गनोजी शिर्के भी संभाजी महाराज के खिलाफ साजिश रच चुके थे.
पत्नी के भाईयों ने दिया धोखा
गनोजी शिर्के संभाजी महाराज की पत्नी येसुबाई का भाई था. वैसे कई इतिहासकार गनोजी शिर्के को येसुबाई का सगा भाई बताते हैं तो कुछ दूर का. इसके अलावा कई किताबों में गनोजी और कान्होजी को संभाजी महाराज के बहनोई होने का भी जिक्र है. खैर, पिलाजी शिर्के गनोजी के पिता थे जो मुगलों के सरदार हुआ करते थे. यानी वो मुगलों के लिए काम करते थे. यही वजह है कि छत्रपति संभाजी महाराज ने उनके राज्य दाभोल पर कब्जा कर लिया था. इसके बाद गनोजी को संभाजी महाराज ने अपने साम्राज्य में प्रभावनवल्ली सूबे का सूबेदार नियुक्त किया था. हालांकि, पिता से दाभोल की सत्ता छीनने की वजह से शिर्के भाई मन ही मन संभाजी को अपना दुश्मत मान बैठे थे. वो किसी भी कीमत पर संभाजी से अपने पिता के अपमान का बदला लेना चाहते थे.
मुगलों ने दिया लालच
जब मुगलों को पता चला की गनोजी और कान्होजी शिर्के संभाजी के खिलाफ है तो उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया. मुगलों की सेना के सरदार मकरब खान ने गनोजी शिर्के को लालच दिया कि अगर वो संभाजी महाराज को पकड़ने में साथ देंगे तो दक्षिण का आधा राज्य उसके हवाले कर दिया जाएगा. गनोजी को तब आधा राज्य दिख रहा था, उसने लालच में आकर मुगल सेना का साथ देने का फैसला कर लिया. दूसरी तरफ वो संभाजी से अपना बदला भी लेना चाहता था तो मुगल सरदार की बातों में आ गया. इसके बाद गनोजी शिर्के की मदद से मुगलों ने संगमेश्वर से निकलने वाले रास्ते में संभाजी महाराज को फंसाने की योजना बनाई. छत्रपति संभाजी महाराज जब तक संगमेश्वर से निकलते तब तक गनोजी शिर्के वहां कुछ लोगों के साथ पहुंच गया. उसने कहा कि ये गांव हैं और संभाजी के सम्मान के लिए आए हैं. संभाजी लोगों का दिल रखना जानते थे. यही वजह है कि वो रास्ते में रुकने के लिए राजी हो गए. उस वक्त संभाजी ने अपने साथ सिर्फ 200 सैनिक रखे और बाकियों को रायगढ़ के लिए रवाना कर दिया. इस फैसले के तुरंत बात गनोजी ने ये खबर मुकरब खान तक पहुंचा दी.
गनोजी ने मुगलों तक पहुंचाई खबर
गनोजी शिर्के ने मुगल सेना के सरदार मुकरब खान को संभाजी महाराज के रास्ते की पूरी जानकारी दे दी. ये ऐसा मौका था जिसे मुगल किसी भी कीमत पर अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे. यही वजह है कि बिना देर किए मुकरब खान 5 हजार सैनिकों को अपने साथ लेकर एक गुप्त मार्ग से संभाजी के रास्ते में खड़ा हो गया. उस गुप्त रास्ते के बारे में सिर्फ मराठाओं को ही जानकारी थी. रास्ते की खासियत ये थी कि वहां से एक वक्त में सिर्फ एक ही सैनिक निकल सकता था. जैसे-जैसे एक-एक करके वहां से मराठा सैनिक निकलते रहे, वैसे-वैसे आगे खड़े मुगल सैनिक उन्हें मारते रहे. मुगल बादशाह औरंगजेब का आदेश था कि संभाजी महाराज को जिंदा पकड़ना है. बस फिर क्या था 1689 में फरवरी के महीने में मुगल सेना संभाजी महाराज को जंजीरों से बांधकर तुलापुर के किले ले आई. जंजीरों से बंधे संभाजी महाराज भी उनके कई सैनिकों पर भारी पड़ रहे थे. उस किले में औरंगजेब ने संभाजी महाराज को खूब तड़पाया. उन्हें इस्लाम कबूलने के लिए बहुत सी यातनाएं दीं. हालांकि, इसके बाद भी संभाजी की आंखों में औरंगजेब को डर नहीं दिखा.

औरंगजेब ने बनाया बंदी
कहा जाता है कि लगभग 38 दिनों तक तुलापुर किले में संभाजी महाराज को उल्टा लटकाकर खूब मारा गया. लोहे की गर्म सरियों से उनकी आंखें निकाली गईं. इतना ही नहीं संभाजी की जीभ तक काटी गई. संभाजी की एक-एक उंगली के नाखून को उखाड़ा गया. इसके बाद उनके अंगों को काट-काटकर तुलापुर नदी में फेंका गया. आखिर में मुगलों ने 11 मार्च, 1689 को संभाजी महाराज का सिर काटा दिया. इतना सब सहने के बाद भी छत्रपति संभाजी महाराज औरंगजेब के आगे नहीं झुके. यही वजह है कि आज भी करोड़ों भारतीय संभाजी महाराज का नाम बड़े गर्व से लेते हैं.
संभाजी के बाद शिर्के का क्या हुआ
छत्रपति संभाजी महाराज के निधन के बाद गनोजी शिर्के ने मुगलों की खूब चमचागिरी की और जुल्फिकार खान की मदद के साथ जिंजी पर कब्जा कर लिया. हालांकि, शिर्के ही वो शख्स था जिसने बाद में छत्रपति राजाराम महाराज को जिंजी से फरार होने में मदद की. इतना ही नहीं उनके परिवार की भी सुरक्षा की. फिर जब शिर्के की इस गद्दारी का पता औरंगजेब को चला तो मुगलों ने उसे भी गिरफ्तार कर लिया. औरंगजेब की मौत तक वो मुगलों की कैद में ही रहा. उसके बाद गनोजी शिर्के छत्रपति शाहूजी महाराज के शासन में मराठा साम्राज्य में एक बार फिर शामिल हो गया.
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