Introduction
Historical Insurgency of Balochistan : दिल्ली में 4 अगस्त, 1947 एक बैठक का आयोजन हुआ और इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, खान ऑफ कलात (बलूचिस्तान प्रांत के कलात क्षेत्र में एक रियासत के शासक की उपाधि) शामिल हुए. मोहम्मद अली जिन्ना ने इस बैठक में खान ऑफ कलात की स्वतंत्रता की इच्छा का समर्थन किया. इसके साथ ही तय हुआ कि 5 अगस्त 1947 को कलात स्वतंत्र हो जाएगा. खारन और लास बेला को मिलकर एक स्वतंत्र बलूचिस्तान के स्थापना की जिम्मेदारी दी गई. उस समय चार रियासतों कलात, खरान, लास बेला और मकरान के रूप में बलूचिस्तान अस्तित्व में था. मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में 11 अगस्त, 1947 को खान ऑफ कलात और मुस्लिम लीग ने एक समझौते पर साइन किया. समझौते में कलात की स्वतंत्रता को मान्यता दी गई. साथ ही बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के लिए मुस्लिम लीग के समर्थन का वचन भी दिया गया. कलात ने भारत की आजादी के साथ ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की. पारंपरिक ध्वज के साथ खान ऑफ कलात, खान मीर अहमद यार खान को बलूचिस्तान का एक स्वतंत्र सम्राट घोषित किया गया. 14 अगस्त को पाकिस्तान और 15 अगस्त को भारत और बलूचिस्तान ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि बलूचिस्तान के सशस्त्र समूहों ने पाकिस्तान के खिलाफ बड़े-बड़े हमले शुरू कर दिए. साथ ही 11 फरवरी को 425 लोगों से भरी ट्रेन को अगवा तक कर लिया.
Table of Content
- सबसे गरीबी में रहा बलूच राज्य
- 14-15 अगस्त, 1947 को शुरू हुई कहानी
- बलूचिस्तान में ऐसे उठे हथियार
- 1977 में हुआ सैन्य तख्तापलट
सबसे गरीबी में रहा बलूचिस्तान
बता दें बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे बड़ा और सबसे कम आबादी वाला प्रांत है. साथ ही बलूचिस्तान हमेशा से पाकिस्तान के सभी प्रांतों में सबसे गरीब और सबसे कम विकसित भी है. बलूचिस्तान में रहने वाली जनजातीय समूहों में मर्री, बुगती और मेंगल समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा है. रिपोर्ट के मुताबिक, बुगती समुदाय के लोग पाकिस्तान के खिलाफ ज्यादा बुलंद आवाज उठाते रहे हैं. आदिवासी नेता नवाब मर्री और अताउल्लाह मेंगल के पास 4,000 से 5,000 लड़ाके हैं. पाकिस्तानी सेना का मानना है कि पाकिस्तान में होने वाले हर हमले में बलूच नेताओं की भूमिका होती है. साथ ही इसमें बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) और बलूचिस्तान लिबरेशन यूनिटी फ्रंट की भूमिका होती है. अंग्रेजों ने बलूचिस्तान से कोयला निकालना शुरू किया था. इसके बाद पाकिस्तान की ओर से प्राकृतिक गैस का दोहन बलूचों के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गई और बलूचिस्तान में साल 1952 में पहली बार प्राकृतिक गैस की खोज की गई थी.

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14-15 अगस्त, 1947 को शुरू हुई कहानी
इस कहानी की शुरुआत भारत और पाकिस्तान की आजादी के साथ होती है. 14 और 15 अगस्त को तीन देशों की आजादी के बाद कलात के खान ब्रिटेन से कब्जा किए हुए इलाकों को वापस करने की मांग की. लेकिन इससे पहले कलात खान के साथ सबसे बड़ा धोखा हो चुका था. 12 सितंबर अंग्रेजों ने सर्कुलर जारी किया. सर्कुलर के मुताबिक, कलात के खान एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिए अयोग्य थे. सर्कुलर के पीछे सबसे बड़े साजिशकर्ता थे मोहम्मद अली जिन्ना. अक्टूबर, 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना और ‘कलात के खान’ के बीच बैठक हुई. मीटिंग में मोहम्मद अली जिन्ना ने बलूचिस्तान को पाकिस्तान में विलय करने का प्रस्ताव रखा. उन्होंने कलात के खान पर दबाव डाला. मोहम्मद अली जिन्ना की मांग का कलात के खान ने पुरजोर विरोध किया. कलात के खान ने संसद के दोनों सदनों की विधायी बैठक बुलाई और बलूचिस्तान के विलय की निंदा करते हुए सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया. साथ ही कलात के खान ने मोहम्मद अली जिन्ना के खतरनाक इरादों को भांपकर अपने कमांडर-इन-चीफ ब्रिगेडियर जनरल पुरवेस को निर्देश दिया कि वह अपनी सेनाओं को युद्ध के लिए तैयार रखे. जनरल पुरवेस ने पाकिस्तान की शक्ति को देखकर अंग्रेजों से सैन्य सहायता की मांग की. अंग्रेजों ने एक बार फिर से धोखा देते हुए सैन्य सहायता देने से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान सरकार की मंजूरी के बाद ही बलूचिस्तान को सैन्य सहायता दी जाएगी. कलात के खान की कमजोर स्थिति पाकर मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने नापाक इरादे जगजाहिर कर दिए. मोहम्मद अली जिन्ना ने अपनी सेना को जमीनी हमलों के आदेश दे दिए. इसके बाद कमजोर कलात की सेना को मात देते हुए पसनी, जिवानी और तुर्बत के बलूच तटीय क्षेत्रों में प्रवेश किया. त्लेआम के बीच कलात के खान ने हार मान ली. उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना की सभी मांगों को मान लिया. से में बलूचिस्तान को सैन्य ताकत और धोखे से स्वतंत्रता पाने के सिर्फ 227 दिनों के बाद ही पाकिस्तान में मिला लिया गया. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक कलात के खान ने भारत में विलय के लिए संपर्क किया था. 7 मार्च, 1948 को ऑल इंडिया रेडियो ने राज्य विभाग के सचिव वी.पी. मेनन के हवाले से इस बात की जानकारी दी थी. ऑल इंडिया रेडियो ने बताया कि कलात के खान ने भारत से विलय के लिए संपर्क किया था, लेकिन भारत कुछ भी करने की स्थिति में नहीं था. बाद में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल और फिर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस बयान का खंडन किया.

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बलूचिस्तान में ऐसे उठे हथियार
बलूचिस्तान के विश्वासघाती और बलपूर्वक कब्जे के बाद ही पहला बलूच विद्रोह हुआ. 1948 में कलात के खान के भाई प्रिंस अब्दुल करीम के नेतृत्व में बलूच आदिवासियों ने पाकिस्तानी सेना से जमकर लोहा लिया. हालांकि, पाकिस्तान की सेना ने घातक हथियारों के दम पर विद्रोह को दबा दिया. 1970-1980 के दशक के दौरान फिर से विद्रोह ने रौद्र रूप ले लिया. पाकिस्तानी सेना की ज्यादतियों और शोषण से परेशान होकर बलूच राष्ट्रवादी भावना ने पाकिस्तानी सेना से फिर लोहा लिया. 1954 में पाकिस्तान ने वन यूनिट योजना की शुरुआत और बलूचिस्तान को अन्य प्रांतों के साथ मिलाने से प्रांत की स्वायत्तता कम हो गई. बलूचों ने कभी भी वन यूनिट फॉर्मूला को स्वीकार ही नहीं किया. इससे बलूच नेताओं में भारी आक्रोश फैल गया और कलात के खान नवाब नौरोज खान ने साल 1958 में स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया. पाकिस्तानी सेना ने नरमी बरतने का वादा करके नौरोज खान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया. फिर धोखा देते हुए साल 1959 में पाकिस्तान ने नरमी बरतने का वादा करके नौरोज खान को गिरफ्तार कर लिया. साथ ही नौरोज खान के बेटों को भी हिरासत में लेने का काम किया. नौरोज खान के बेटों समेत उनके पांच रिश्तेदारों को फांसी पर लटका दिया गया. इससे फिर से बलूच आंदोलन तेज हो गया. इसके बाद साल 1963 में तीसरा बलूचिस्तान संघर्ष देखने को मिला. शेर मुहम्मद बिजरानी मर्री के नेतृत्व ने बलूचों ने गैस भंडारों से रॉयल्टी, वन यूनिट योजना को भंग करना और बलूच विद्रोहियों को रिहा करने के लिए विद्रोह कर दिया था. साल 1969 में बलूच नेताओं की रिहाई के साथ विद्रोह समाप्त हो गया. साल 1970 में वन यूनिट नीति को समाप्त करने के बाद बलूचिस्तान को चार प्रांतों में से एक के रूप में मान्यता दी गई. साल 1972 में पहली बार बलूचिस्तान में चुनाव हुए. चुनाव के बाद अकबर खान बुगती के नेतृत्व में NAP यानि जातीय-राष्ट्रीय राष्ट्रीय अलवामी पार्टी सत्ता में आई. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1973 की शुरुआत में बलूच प्रांतीय सरकार को बर्खास्त करके NAP सरकार को हटा दिया. साथ ही आरोप लगाया कि NAP विदेशी सरकारों के साथ साजिश कर रहे थे. जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा कि इराकी दूतावास में हथियारों का एक जखीरा मिला है जो बलूच विद्रोहियों के लिए था. इसके बाद बड़े पैमाने पर सशस्त्र विद्रोह शुरू हुआ, जो 1977 तक तक चला. इसे चौथे बलूचिस्तान संघर्ष के रूप में जाना जाता है.

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1977 में हुआ सैन्य तख्तापलट
पत्रकार सेलिग हैरिसन के अनुमान के अनुसार पहले बलूच विद्रोह से 1973 तक 5,300 बलूच लड़ाके और 3,300 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे. 1977 में सैन्य तख्तापलट के कारण जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी की सजा दी गई और जनरल मुहम्मद जिया ने सत्ता संभाली. मुहम्मद जिया ने बलूचों के साथ 25 साल तक बातचीत कर मामले को संभाले रखा. बलूच कैदियों की रिहाई से उन्होंने बलूच नेताओं को शांत रखा. मुहम्मद जिया ने 1980 के दशक में बलूच को चुनावों में भाग लेने की अनुमति दी. माना जाता है कि 1980 और 1990 के दशक के दौरान बलूचिस्तान काफी हद तक शांत रहा. हालांकि, अंदर ही अंदर विद्रोह की आग जल ही रही थी. फिर साल 2004 में हिंसा फिर से भड़क उठी, जो अब तक जारी है. साल 2006 में बलूच आदिवासी नेता अकबर खान बुगती की हत्या के बाद यह विद्रोह और तेज हो गया. अकबर खान बुगती अधिक स्वायत्तता, संसाधन नियंत्रण और बलूचिस्तान के प्राकृतिक गैस राजस्व में उचित हिस्सेदारी की मांग करते थे.

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Conclusion
ग्वादर मेगा-पोर्ट का निर्माण बलूचों के विद्रोह का सबसे बड़ा कारण है, जिसे चीन की सहायता से बनाया जा रहा है. इस परियोजना का उद्देश्य ग्वादर के छोटे मछली पकड़ने वाले गांव को दुबई के बराबर एक प्रमुख परिवहन केंद्र में बदलना है. वहीं, ग्वादर पाकिस्तान के लिए युद्ध में रणनीतिक महत्व रखता है. ग्वादर मेगा-पोर्ट का निर्माण के अलावा प्राकृतिक गैस की खोज का विस्तार भी बलूचों को विद्रोह करने पर मजबूर करता है. हालांकि, पाकिस्तान की सरकार ने ग्वादर प्रोजेक्ट से बलूचों को बाहर रखा है. विद्रोही हमलों से इसे सुरक्षित रखने के लिए सेना के जवानों को भी तैनात किया गया है. बलूचों का कहना है कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने ग्वादर के आस-पास की बहुत सी जमीन अवैध रूप से बेची है, जिससे बलूचों को भारी आर्थिक नुकसान भी हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के बाद पश्तून शरणार्थी बलूचिस्तान में दाखिल हुए. बलूच और पश्तूनों के बीच लड़ाई बहुत पुरानी है. वहीं, कई तालिबान के लड़ाके बलूचिस्तान में बस गए हैं. कई मीडिया रिपोर्ट में बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा को अल कायदा और तालिबान की वास्तविक राजधानी बताया गया है. ऐसे में बलूचों की ओर से गैर-बलूच प्रवासियों और पंजाबियों की भी हत्या की जा रही है. पाकिस्तानी सेना की ओर से हिंसा, दुष्कर्म, मानवाधिकार हनन और अपहरण के कारण बलूच बड़े-बड़े हमलों को अंजाम दे रहे हैं.
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