Home Politics जब देश में बहुत कम बचा था ‘विदेशी मुद्रा भंडार’, तब पूर्व पीएम ने डॉ. मनमोहन सिंह को किया याद; फिर रचा इतिहास

जब देश में बहुत कम बचा था ‘विदेशी मुद्रा भंडार’, तब पूर्व पीएम ने डॉ. मनमोहन सिंह को किया याद; फिर रचा इतिहास

by Live Times
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indian economist manmohan singh

Dr Manmohan Singh retires from Rajya Sabha : पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बुधवार (03 अप्रैल, 2024) को राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हो गया. उनको भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में दिए उनके योगदान को भी काफी सराहा जाता है. जब देश की अर्थव्यवस्था असंतुलित हो रही थी उस वक्त डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी समझ के हिसाब से देश में आर्थिक सुधारों के लिए उदारवाद का रास्ता चुना और देश की इकोनॉमी को तेजी से बेहतरी की ओर बढ़ाया.

3 April, 2024

Dr Manmohan Singh retires from Rajya Sabha : कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में पूर्व पीएम डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल (2004-14) तक प्रधानमंत्री पद पर रहे. डॉ. मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री के दो कार्यकालों के दौरान भले ही आलोचना की जाती रही हो, लेकिन इस बात को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने आर्थिक सुधारों (1991) पर जब चर्चा होती है तो तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह को सराहा जाता है. 24 जुलाई, 1991 के दिन जब डॉ. मनमोहन सिंह नेहरू जैकेट और आसमानी पगड़ी में अपने भाषण लोकसभा में दे रहे थे उस दौरान सबकी निगाहें उनके ऊपर टिकी हुई थी. भाषण के दौरान उन्होंने कहा कि यह सच बात है कि वह बिल्कुल अकेलापन महसूस कर रहा हूं. क्योंकि उनके सामने आज राजीव गांधी का मुस्कराता और सुंदर चेहरा नहीं है.

1991 का बजट का बड़ा हिस्सा डॉ. मनमोहन सिंह ने लिखा

मनमोहन सिंह ने सत्तर के दशक में सात बजटों को बनाने में योगदान दिया था और साल 1991 का पहला ऐसा बजट रहा था, जिसमें डॉ. सिंह ने सिर्फ इस बजट को अंतिम रूप दिया बल्कि इसका बड़ा हिस्सा उन्होंने अपने हाथ से ही लिखा था और इसके बाद उन्होंने संसद में खुद ही पेश किया. बजट की खास बात यह है कि 18 हजार शब्दों वाले बजट में सकल घरेलू उत्पादन (GDP) के 8.4 फीसदी से घटाकर 5.9 प्रतिशत पर ले आए थे. बजटीय घाटे को कम करने का मतलब था कि सरकारी खर्चों में भारी कटौती करना. मनमोहन ने जीवंत पूंजी बाजार की नींव रखी और एलपीजी सिलेंडर की कीमतों में बढ़ोतरी की थी. वर्ष 1991 में उदारवादी नीति को लागू करते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने एक दिन के अंदर ही नेहरू युग के मिश्रित अर्थव्यवस्था के तीन स्तंभ सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकारवाद, विश्व बाजार और लाइसेंस राज को देश से खत्म कर दिया.

दो सप्ताह का बचा था विदेशी मुद्रा भंडार

डॉ. सिंह का योगदान इस बात से पता चलता है कि साल 1991 में भारत का इंटरनेशनल ट्रेड संतुलन काफी घाटे में चला गया था. इसका विदेशी कर्ज 35 बिलियन डॉलर से दोगुना होकर 69 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था. इस दौरान भारत के पास धन और समय बहुत सीमित रह गया था. साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार 6 बिलियन डॉलर से भी कम बचा था, जिससे केवल दो हफ्ते तक ही विदेश आयात किया जा सकता था. क्योंकि देश में विदेशी निवेश पर सरकारी नियंत्रण था और प्राइवेट कंपनी लगाने के लिए जटिल लाइसेंसिंग सिस्टम था.

दो बार किया गया रुपये में अवमूल्यन

उत्पादन पर सरकारी नियंत्रण, शेयर बाजार में भारी घपलेबाजी और चीन-पाकिस्तान युद्ध के कारण देश की अर्थव्यवस्था लगातार हिचकोले खा रही थी. जबकि साल 1991 में सरकार ने दो बार अवमूल्यन करने की कोशिश की, पहली बार 9 फीसदी किया तो दूसरी बार 11 प्रतिशत किया गया. दूसरी तरफ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने 400 मिलियन डॉलर इकट्ठा करने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड को अपना सोना गिरवी रख दिया था. इसके बाद भी देश में अर्थव्यवस्था संतुलित नहीं हो पा रही थी. तमाम समस्याओं को देखते हुए अर्थव्यवस्था में बड़े सुधारों की जरुरत थी. नए आर्थिक सुधारों की शुरुआत करते हुए डॉ. सिंह ने इसे ‘मानवीय चेहरे के साथ सुधार’ बताया. वहीं औद्योगिक नीति, 1991 की शुरुआत करने के साथ ही भारत सरकार ने लाइसेंस राज खत्म कर दिया और विदेशी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार खोल दिया. भारत सरकार की तरफ इस कदम को उठाने के बाद पहली बार कामयाबी तब मिली जब दिसंबर 1991 में सरकार ने विदेश में गिरवी रखे गोल्ड को छुड़वाकर वापस आरबीआई को सौंप दिया. इसके साथ ही विदेश निवेश के साथ कंपनिया भी जब भारत में आा शुरू हुई तो लोगों के पास पैसा आया और आम लोगों की जीवनशैली में बड़ा बदलाव देखा गया और देश में भारी संख्या में प्रोडक्शन शुरू हुआ.

उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की हुई शुरुआत

देश में नेहरू और इंदिरा का ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ मॉडल को खत्म करने के बाद दुनिया के लिए भारतीय बाजार खोल दिया गया था और देश में ग्लोबलाइजेशन की शुरुआत हो गई थी. मनमोहन के वित्तमंत्री रहते हुए देश में उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की शुरुआती हुई जिसके कारण विदेश से व्यापार आया, कर मुक्ति, वित्तीय क्षेत्र में उदारीकरण और विदेशी निवेश के माध्यम से बड़े सुधार किए गए. इसके बाद साल 2004 से 2014 तक जब वह भारत के प्रधानमंत्री बने तो उनका कार्यकाल स्वर्णिम काल भी कहा गया. इन 10 सालों में जीडीपी 8.1 फीसदी की दर से प्रगति हुई. ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट में साल 2006-07 में 10.08% तक पहुंच गई और दुनिया में दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनने लगी.

जब अर्थशास्त्री से कहा- आपको जाना पड़ेगा

नरसिम्हा राव सरकार के शपथ लेने से मात्र एक दिन पहले अलेक्जेंडर ने मनमोहन सिंह को फोन किया. लेकिन विदेश से लौटने की वजह से वह सो रहे थे और फोन को रिसीव नहीं कर पाए. लेकिन जब उन्होंने फोन उठाया और उनको देश का वित्त मंत्री बनाने के लिए बताया गया तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ. नरसिम्हा राव ने शपथ ग्रहण से मात्र तीन घंटे पहले ही मनमोहन सिंह से कहा था कि वह अपनी सरकार में उन्हें वित्त मंत्री बनाना चाहते हैं. इसके साथ ही डॉ. सिंह को यह भी कहा गया कि अगर इसमें हम कामयाब होते हैं तो दोनों को श्रेय दिया जाएगा और अगर ऐसा नहीं होता है तो आपको जाना पड़ेगा.

मनमोहन का आर्थिक सुधार में बड़ा योगदान

पीवी नरसिम्हा राव की मौत से कुछ दिनों पहले एक पत्रकार ने उनसे सवाल पूछा कि वर्ष 1991 में हुए उदारीकरण का श्रेय किसको दिया जाना आपको या वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को? तो उसका जवाब देते हुए राव ने डॉ. सिंह की तारीफ तो की और आर्थिक सुधारों में उनके योगदान को भी सराहा. साथ ही ये भी कहा कि वित्तमंत्री की ताकत शून्य है. उसकी ताकत इस बात पर निर्भर करती है कि उसके आगे कितने शून्य लगाए जा सकते हैं. उन्होंने आगे कहा कि सिर्फ मेरा कहने का मतलब इतना है कि वित्त मंत्री की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रधानमंत्री का उसे कितना समर्थन मिलता है.

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