Introduction
Rajendra Prasad Biography And Facts: देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद सही मायने में सादगी के प्रतीक थे. अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के लिए मशहूर राजेंद्र प्रसाद देश के एकमात्र राष्ट्रपति हैं, जिनका कार्यकाल एक बार से अधिक का रहा. 03 दिसंबर, 1884 को बिहार के सीवान जिले में जन्में राजेंद्र प्रसाद का जीवन बेहद सादगी भरा रहा. उन्होंने कठिन चुनौतियों के बीच पढ़ाई की. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अत्यंत प्रिय राजेंद्र प्रसाद को बिहार का गांधी भी कहा जाता था. उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन तो सादगी के साथ गुजारा ही, साथ ही अपने निजी जीवन में भी वह बेहद ईमानदार रहे. सही मायने में वह शुचिता, विद्वता और सरलता के साथ-साथ सादगी के भी प्रतीक थे. पढ़ाई के दौरान वह अत्यंत मेधावी थे. बड़े होने पर वह महान कानूनविद हुए. उन्होंने नैतिकता की उस ऊंचाई को छुआ जो आज के समय में तपस्या से कम नहीं है.
Table of Content
- कांग्रेस कार्यालय को बनाया रहने का ठिकाना
- सादगी से गुजारा जीवन
- संविधान सभा का किया था नेतृत्व
- कई भाषाओं के थे जानकार
- गुरु के विचारों का था गहरा प्रभाव
- 3 साल जेल में बिताए
- पत्नी के जेवरात किए राष्ट्र को समर्पित
- बेमन से लड़े चुनाव
कांग्रेस कार्यालय को बनाया रहने का ठिकाना
कहा जाता है कि राजेंद्र प्रसाद इस कदर ईमानदार थे कि उन्होंने भाई-भतीजावाद को कभी तरजीह नहीं दी. नैतिकता, शुचिता और ईमानदारी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि राष्ट्रपति पद का कार्यकाल खत्म होने के बाद उनके पास रहने के लिए अपना कोई निजी आवास भी नहीं था. उन्होंने लोगों की सेवा को ही ध्येय बनाया था. यह भी बड़ी बात है कि पद से हटने के बाद राजेन्द्र प्रसाद ने बिहार कांग्रेस कमेटी के कार्यालय सदाकत आश्रम को अपने रहने का ठिकाना बनाया. उनके कार्यकाल के दौरान जो भी व्यक्ति मदद के लिए आता वह सरलता से उसे संबल देते और हमेशा लोगों की मदद के लिए आगे रहते थे. वर्ष 1914 में बिहार और बंगाल में आई बाढ़ से प्रभावित लोगों की मदद के लिए उन्होंने हर मुमकिन कोशिश की. इस दौरान उन्होंने एक समाजसेवी के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई. इसके 20 साल बाद 15 जनवरी, 1934 को बिहार में भूकंप आया तो वह आजादी की लड़ाई के लिए जेल में थे. उस अवधि के दौरान राजेंद्र प्रसाद ने राहत कार्य को अपने निकट सहयोगी अनुग्रह नारायण सिन्हा को सौंप दिया, जिससे जरूरतमंद लोगों की मदद का सिलसिला नहीं थमे. इसी कड़ी में 31 मई, 1935 को क्वेटा भूकंप के बाद उन्होंने पंजाब में क्वेटा सेंट्रल रिलीफ़ कमेटी की स्थापना की.
सादगी से गुजारा जीवन
ईमानदारी की मिसाल राजेन्द्र प्रसाद देश के सर्वोच्च पद पर यानी राष्ट्रपति के पद पर कई सालों तक रहे. लेकिन इस दौरान भी उन्होंने अपनी सादगी नहीं छोड़ी. राष्ट्रपति भवन कमरों की भरमार है, लेकिन उन्होंने अपने इस्तेमाल के लिए केवल 2-3 कमरे ही रखे थे. राष्ट्रपति भवन के एक कमरे में चटाई बिछी रहती थी, यहां पर वह महात्मा गांधी से प्रेरित होकर चरखा काता करते थे.
यह डॉ. राजेंद्र प्रसाद की राजनीतिक शुचित ही थी कि राष्ट्रपति पद से हटने के साथ ही उन्होंने राजनीति से संन्यास भी ले लिया था. पटना के एक आश्रम में 28 फरवरी, 1963 को बीमारी के कारण उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली. यह भी सच है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद उन बिरले राजनेताओं में थे, जो राष्ट्रपति पद से हटने के बाद सीधे पटना के सदाकत आश्रम में रहे. इतना ही नहीं जब उनका समय निकट आया, तो वह अपने जर्जर घर में चले गए.
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संविधान सभा का किया था नेतृत्व
राजेंद्र प्रसाद ने एक दशक से भी अधिक समय तक बतौर राष्ट्रपति अपनी सेवाएं दीं. वह 1950-62 के बीच राष्ट्रपति के पद पर आसीन रहे. वर्ष 1962 में राजेंद्र प्रसाद को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. उन्होंने संविधान सभा का भी नेतृत्व किया था. राजेंद्र प्रसाद उस दौर के सबसे बेहतरीन नेता और महान समाजसेवी महात्मा गांधी के बेहद करीबी सहयोगी थे. आजादी के बाद वह भारत के पहले राष्ट्रपति बने. महात्मा गांधी के करीबी होने के चलते ही राजेंद्र प्रसाद को ‘नमक सत्याग्रह’ और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जेल तक जाना पड़ा. डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपना वकालत का करियर छोड़कर देश सेवा को तरजीह दी. वह एक आदर्श शिक्षक होने का साथ-साथ सफल वकील और प्रभावशाली लेखक भी थे. यह भी कम बड़ी बात नहीं कि उन्होंने अपने जीवन का हर पल देश की सेवा में बिताया. उनकी खूबियों के चलते ही 26 जनवरी, 1950 को उन्हें भारत का पहला राष्ट्रपति चुना गया. वह लगभग 12 वर्षों तक इस पद पर आसीन रहे. वह देश के इकलौते ऐसे नेता हैं, जो इतने लंबे समय तक राष्ट्रपति के पद पर आसीन रहे.
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कई भाषाओं के थे जानकार
देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार के सीवान में 3 दिसंबर, 1884 को हुआ था. पिता का नाम महादेव सहाय और माता का नाम कमलेश्वरी देवी था. वह पढ़ाई में बहुत अच्छे थे और उनकी शुरुआती शिक्षा बिहार के छपरा जिले के एक ग्रामीण स्कूल में हुई थी. डॉ राजेंद्र प्रसाद की हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली एवं फारसी भाषा पर अच्छी पकड़ थी. उन्होंने पटना से कानून में मास्टर की डिग्री ली. राजेंद्र प्रसाद अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे, इसलिए उन्हें दुलार भी खूब मिला. उनके एक बड़े भाई और 3 बड़ी बहनें थीं. उनकी मां की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई थी. ऐसे में राजेंद्र प्रसाद का पालन-पोषण और देखभाल उनकी बड़ी बहनों ने किया था. जून 1896 में 12 साल की कम उम्र में उनकी शादी राजवंशी देवी से हुई. राजेंद्र प्रसाद का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव था. मां कमलेश्वरी देवी ने अपने बेटे यानी राजेंद्र प्रसाद को रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाकर पाला था. दरअसल, मां ने बेटे में संस्कार कूटकट कर भरे थे.
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गुरु के विचारों का था गहरा प्रभाव
डॉ. राजेंद्र प्रसाद को प्यार से ‘राजेन बाबू’ के नाम से भी पुकारा जाता था. जानकारों का कहना है कि एक दशक तक भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. राजेद्र प्रसाद के जीवन पर उनके गुरु गोपाल कष्ण गोखले के विचारों का गहरा प्रभाव था. अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया था कि उन्होंने गोपाल कृष्ण से मुलाकात और उनके विचारों को जानने के बाद आजादी की लड़ाई में शामिल होने का फैसला किया था. बताया जाता है कि राजेंद्र प्रसाद के निर्मल स्वभाव और उनकी योग्यता को लेकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे महात्मा गांधी भी खूब खुश हुए थे. महात्मा गांधी ने वर्ष 1917 में बिहार में ब्रिटिश नील उत्पादकों द्वारा शोषित किसानों की दुर्दशा को सुधारने के उद्देश्य से एक अभियान के लिए उनका समर्थन हासिल किया था. वर्ष 1920 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपना कानूनी करियर तक छोड़ दिया था.
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3 साल तक बिताया जेल में
गुरु गोपाल कष्ण गोखले के विचारों और महात्मा गांधी से प्रभावित हो कर ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने आजादी के आंदोलन में शिरकत की. आजादी के आंदोलन में शामिल होने के चलते वह ब्रिटिश अधिकारियों की नजर में आए गए. इसकी वजह से उन्हें कई बार कारावास का सामना करना पड़ा. राजेद्र प्रसाद ने अगस्त, 1942 से जून, 1945 तक का समय जेल में बिताया. वह आधुनिक भारत के प्रमुख वास्तुकारों में से एक थे. इसके साथ ही उन्होंने संविधान समिति के अध्यक्ष के रूप में भारतीय संविधान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
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पत्नी के जेवरात को किया राष्ट्र को समर्पित
चीन के युद्ध के समय डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पत्नी के जेवर राष्ट्र काे समर्पित कर दिया था. यह भी कड़वा सच है कि देश को उन्होंने बहुत कुछ दिया लेकिन लोगों ने उनके साथ न्याय नहीं किया. राजवंशी देवी (17 जुलाई 1886 – 9 सितंबर 1962) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं. उन्होंने भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की पत्नी और भारत की पहली प्रथम महिला के रूप में कार्य किया. उन्होंने पति राजेंद्र प्रसाद के आदर्शों को अपनाया. बहुत कम लोग जानते हैं कि राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति रहते हुए कभी धन नहीं जोड़ा. उन्होंने अंत समय तक कोई घर या अन्य संपत्ति नहीं बनाई. उन्हें राष्ट्रपति के रूप में जितना वेतन मिलता था, उसका आधा वो राष्ट्रीय कोष में दान कर देते थे.
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बेमन से लड़े चुनाव
राजेंद्र प्रसाद ने 1977 में आपातकाल के बाद घोषित चुनाव में जनता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ा. कहा जाता है कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे. यह भी सच है कि जयप्रकाश नारायण के अनुरोध पर चुनाव में खड़े हुए. उन्होंने जीत भी हासिल की लेकिन इसके बाद फिर कभी सियासत में सक्रिय नहीं रहे. सादगी पसंद राजेंद्र प्रसाद के परिवार तथा किसी भी रिश्तेदार ने उनके पद का लाभ नहीं उठाया. वह खुद नहीं चाहते थे कि उनका कोई नजदीकी रिश्तेदार राष्ट्रपति पद की गरिमा पर कोई आंच आने दे. यही वजह है कि राजेंद्र प्रसाद को लोग सम्मान के नजरिये से देखते हैं.
Conclusion
आजीवन सादा जीवन जीने वाले राजेंद्र प्रसाद ने कई मिसालें देश के सामने रखी हैं. बतौर राष्ट्रपति 10 साल से अधिक समय तक वह इस पद पर रहे, लेकिन इस दौरान उन्होंने कोशिश की कि उनका परिवार साधारण जिंदगी ही जिए. अपने पद का फायदा उन्होंने शायद ही कभी अपने परिवार को लेने दिया. यहां तक कि जरूरत पड़ने पर वह बिना स्वार्थ के हमेशा राष्ट्र की सेवा के लिए तत्पर रहते थे.
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